भागवत कथा महात्म्य: गोकर्ण ने धुंधुकारी को दिलाई प्रेतयोनि से मुक्ति (दूसरा और अंतिम भाग)
पिछले भाग में आपने पढ़ा — संतानहीन आत्मदेव ब्राह्मण को एक ब्राह्मण ने संतान-प्राप्ति के लिए दिव्य फल दिया था। परंतु उसकी दुष्ट पत्नी ने वह फल एक गाय को खिला दिया और अपनी बहन के पुत्र धुंधुकारी को अपना पुत्र बताकर पाल लिया।
गाय से उत्पन्न तेजस्वी बालक गोकर्ण का जन्म हुआ, जिसे आत्मदेव ने स्नेहपूर्वक अपना पुत्र मान लिया।
धुंधुकारी कुसंगति में पड़कर अनैतिक कर्मों में लिप्त हो गया, जिससे आत्मदेव का हृदय व्यथित हुआ और अंततः उन्होंने शरीर त्याग दिया।
अब कथा का दूसरा भाग—
धुंधुकारी का पतन और प्रेतयोनि
पिता के निधन के बाद धुंधुकारी और भी उन्मुक्त हो गया। धन और भोग-विलास के लिए उसने घर को अराजकता का स्थान बना दिया।
उसकी माता धुंधुली (आत्मदेव की पत्नी) उसके अत्याचारों से त्रस्त होकर कुएँ में कूद गई और अपने जीवन का अंत कर लिया।
अब न माता रही, न पिता।
गोकर्ण भी तीर्थयात्रा पर निकल गए।
धुंधुकारी दिन-रात वेश्याओं के संग विलास में लिप्त रहने लगा। व्यभिचार और लोभ ने उसकी बुद्धि को पूर्णतः भ्रष्ट कर दिया।
वेश्याएँ उसके धन का दोहन करने लगीं। एक बार धुंधुकारी ने उनकी इच्छाएँ पूरी करने के लिए राजमहल से चोरी की।
राजकोष का धन देखकर वे भयभीत हुईं कि यदि यह अपराध उजागर हुआ तो राजा उन्हें भी दंडित करेगा।
इस भय से उन दुष्ट स्त्रियों ने रात्रि में धुंधुकारी को दहकते अंगारों से जला कर मार डाला और शव को घर में ही गाड़ दिया।
अपने कर्मों के फलस्वरूप धुंधुकारी प्रेतयोनि में भटकने लगा।
गोकर्ण का आगमन और भाई के उद्धार का संकल्प
कई वर्षों बाद गोकर्ण तीर्थाटन से लौटे और अपने पुराने घर में रात्रि विश्राम के लिए ठहरे।
रात के समय धुंधुकारी का प्रेत भयंकर स्वर निकालते हुए उन्हें भयभीत करने लगा।
गोकर्ण ने अपनी दिव्य दृष्टि से समझ लिया कि यह किसी पापबद्ध आत्मा का क्लेश है। उन्होंने कमंडल का जल छिड़ककर प्रेत को शांत किया और कोमल वाणी में पूछा — “तुम कौन हो?”
प्रेत विलाप करने लगा — “मैं तुम्हारा भाई धुंधुकारी हूँ। अपने पापकर्मों से प्रेतयोनि में पड़ा हूँ, मुझे मुक्ति दो।”
भ्रातृस्नेह से द्रवित होकर गोकर्ण ने उसे उद्धार का आश्वासन दिया।
पिंडदान से भी न मिली मुक्ति
गोकर्ण ने विधिवत तर्पण और पिंडदान किया, पर लौटने पर देखा कि धुंधुकारी अब भी प्रेतरूप में ही भटक रहा है।
उन्होंने अनेक विद्वानों और ब्राह्मणों से उपाय पूछा, किंतु कोई समाधान नहीं मिला।
अंततः उन्हें सुझाव मिला कि वे भगवान सूर्य की उपासना करें।
सूर्यदेव का प्रकट होना और भागवत श्रवण का निर्देश
गोकर्ण ने गहन साधना की। सूर्यदेव प्रकट हुए और बोले —
“गोकर्ण, तुम्हारे भाई की मुक्ति का एकमात्र उपाय श्रीमद् भागवत कथा का श्रवण है।
सात दिनों तक श्रद्धा से कथा सुनने वाला हर प्राणी मोक्ष प्राप्त करता है।”
गोकर्ण ने निवेदन किया — “प्रभु, धुंधुकारी तो प्रेत है। वह कथा कैसे सुनेगा?”
सूर्यदेव ने उत्तर दिया —
“कथा स्थल पर सात गांठों वाला एक बाँस गाड़ देना। वह सूक्ष्म रूप से बाँस की शीर्ष गांठ में विराजेगा।
प्रतिदिन कथा के साथ एक-एक गांठ टूटती जाएगी, और सप्तम दिवस उसकी प्रेतयोनि भंग हो जाएगी।”
भागवत श्रवण और धुंधुकारी की मुक्ति
सूर्यदेव के निर्देशानुसार गोकर्ण ने श्रीमद्भागवत कथा का आयोजन किया।
समाचार फैलते ही असंख्य लोग कथा सुनने के लिए एकत्र हुए।
गोकर्ण ने ऊँचे आसन पर बैठकर श्रीकृष्ण की महिमा का वाचन आरंभ किया।
बाँस की एक गांठ में धुंधुकारी सूक्ष्म रूप में बैठकर कथा सुनने लगा।
हर दिन कथा के अंत में बाँस की एक गांठ चटाक से फटती जाती। सातवें दिन जब सातवीं गांठ फटी, तभी दिव्य प्रकाश प्रकट हुआ।
धुंधुकारी प्रेतयोनि से मुक्त होकर दिव्य तेजस्वी रूप में प्रकट हुआ। उसी क्षण आकाश से एक दिव्य विमान उतरा, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण के पार्षद विराजमान थे।
वे धुंधुकारी को सम्मानपूर्वक विमान में बैठाने लगे।
गोकर्ण का प्रश्न और देवदूतों का उत्तर
गोकर्ण ने पूछा — “यहाँ तो अनेक लोगों ने समान श्रद्धा से कथा सुनी, फिर केवल धुंधुकारी को ही यह सौभाग्य क्यों मिला?”
देवदूतों ने उत्तर दिया —
“राजर्षि, सबने कथा सुनी, पर मनन किसी ने नहीं किया।
धुंधुकारी ने सात दिनों तक निराहार रहकर, मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर श्रद्धापूर्वक कथा सुनी।
इसीलिए वह श्रीकृष्ण के परम पद का अधिकारी बना।”
देवदूतों ने यह कहकर धुंधुकारी को विमान में बिठाया और गोलोकधाम की ओर प्रस्थान किया।
कथा का संदेश
जो श्रद्धा, एकाग्रता और भक्ति से श्रीमद्भागवत कथा का श्रवण या वाचन करते हैं, वे पापकर्मों से मुक्त होकर श्रीहरि के चरणों में स्थान प्राप्त करते हैं।
इसी कारण गोकर्ण और धुंधुकारी का प्रसंग भागवत महात्म्य में अत्यंत पवित्र और शिक्षाप्रद माना गया है।