भागवत कथा: श्रेष्ठ दानशील राजा रंतिदेव की कथा
भरद्वाज मुनि ने राजा भरत के कुल की परंपरा को आगे बढ़ाया। उसी पवित्र वंश में आगे चलकर एक महान और दानशील राजा हुए — महाराज रंतिदेव।
रंतिदेव अत्यंत उदार, सहृदय और परोपकारी राजा थे। वे आकाश की तरह विशाल हृदय वाले थे और उन्होंने कभी धन-संग्रह की प्रवृत्ति नहीं रखी। जो कुछ दैवयोग से प्राप्त होता, उसी से संतोष करते और जो मिल जाता, उसे दूसरों के साथ बाँट लेते।
उनका विश्वास था कि संग्रह करने से व्यक्ति का मन तृष्णा और अहंकार से भर जाता है, जबकि दान करने से आत्मा शुद्ध होती है। यही कारण था कि वे कभी संचय नहीं करते थे।
एक बार ऐसा हुआ कि लगातार अड़तालीस दिनों तक राजा रंतिदेव और उनका परिवार अन्न और जल से वंचित रहा। उनचासवें दिन उन्हें थोड़ा-सा घी, खीर, हलवा और कुछ जल प्राप्त हुआ। इतने दिनों की भूख-प्यास के बाद यह भोजन उनके लिए किसी अमृत से कम नहीं था।
वे और उनका परिवार जैसे ही भोजन करने बैठे, उसी समय एक ब्राह्मण वहाँ आया और उसने भोजन की याचना की। राजा रंतिदेव ने बिना विलंब किए, श्रद्धा से उस ब्राह्मण को भोजन कराया। बचे हुए अन्न को परिवार ने आपस में बाँट लिया और खाने की तैयारी करने लगे।
तभी एक शूद्र आया और बोला — “राजन! मैं अत्यंत भूखा हूँ, कृपा कर मुझे अन्न दें।” रंतिदेव ने तत्क्षण उसके लिए भी भोजन का भाग अलग किया और उसे तृप्त किया।
अब भोजन बहुत थोड़ा बचा था। जैसे ही परिवार उसे ग्रहण करने बैठा, तभी एक तीसरा अतिथि आया, जिसके साथ एक कुत्ता भी था। उसने निवेदन किया — “महाराज, मेरे और मेरे कुत्ते के लिए भी कुछ भोजन मिल जाए।”
रंतिदेव ने बिना संकोच बचा हुआ सारा भोजन उन्हें दे दिया।
अब केवल थोड़ा-सा जल शेष रह गया था, जो मुश्किल से एक व्यक्ति की प्यास बुझा सकता था। परिवार उस जल को आपस में बाँटने ही जा रहा था कि तभी एक चांडाल वहाँ आया। उसका स्वर करुणा से भरा था — “राजन, मैं अत्यंत प्यासा और पीड़ित हूँ। मुझे कुछ जल दे दीजिए।”
रंतिदेव ने तनिक भी विचार किए बिना वह जल चांडाल को अर्पित कर दिया।
जैसे ही चांडाल ने वह जल ग्रहण किया, उसी क्षण वहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश प्रकट हो गए। वे तीनों देवता राजा रंतिदेव के समक्ष खड़े थे।
राजा ने विनम्रतापूर्वक उन्हें प्रणाम किया। देवताओं ने प्रसन्न होकर कहा — “राजन, तुमने अत्यंत दया और त्याग का उदाहरण प्रस्तुत किया है। वर माँगो।”
रंतिदेव ने folded hands से कहा —
“प्रभु, मैं किसी भी भौतिक वस्तु, संपत्ति या सुख की कामना नहीं करता। मुझे संसार की किसी आसक्ति में लिप्त नहीं होना है। मेरी एकमात्र अभिलाषा है — कि मैं सदैव आपकी भक्ति में लीन रहूँ।”
राजा की इस निष्काम भक्ति से देवता अत्यंत प्रसन्न हुए। श्रीहरि ने उन्हें अपने सान्निध्य में स्थान दिया और उनके परिजनों को भी महादानियों में श्रेष्ठ पद प्रदान किया।
इस प्रकार राजा रंतिदेव त्याग, सेवा और भक्ति के प्रतीक बनकर अमर हो गए।