भागवत कथाः बलरामजी द्वारा धेनुकासुर संहार
बलराम और श्रीकृष्ण पौगण्ड-अवस्था यानी पांच वर्ष पूरे करने के बाद छठे वर्ष में प्रवेश कर चुके थे. नंदबाबा से जिद करके उन्होंने बछड़ों की जगह गाएं चराने की अनुमति ले ली थी. बलराम और श्रीकृष्ण के सखाओं में एक का नाम था- श्रीदामा.
एक दिन श्रीदामा ने बलराम और श्रीकृष्ण से कहा- बलरामजी. तुम तो असीम बाहुबल से भरे हो. कन्हैया भी दुष्टों को दंड देते रहते हो. हमारे वृंदावन के समीप ही एक दुष्ट का वास है. वह लोगों को सताता रहता है. उसे भी दंड दो.
बलराम के पूछने पर श्रीदामा ने बताया- पास में ताड़ का एक वन है जो सदा फलों से लदा रहता हैं. वहां धेनुक नामक दुष्ट दैत्य का वास है जो गधे के रूप में रहता है. वह फल खाने नहीं देता. कन्हैया! हमें उन फलों को खाने की बड़ी इच्छा है.
अपने सखा ग्वाल बालों की यह बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम दोनों ही अपने मित्रों को प्रसन्न करने के लिए उनको साथ लेकर ताड़ वन के लिए चल पड़े. वन में पहुँचकर बलराम ने पेड़ों को जोर से हिलाकर बहुत से फल नीचे गिरा दिए.
जब गधे के रूप में रहने वाले धेनुकासुर ने फलों के गिरने की आवाज सुनी तो वह बलराम को मारने दौड़ा. वह बड़ा बलवान था. उसकी गति से पृथ्वी और पर्वत डोलने लगते थे. धेनुकासुर ने अपने पिछले पांवों से जोरदार दुलत्ती बलरामजी को मारी.
धेनुकासर इतना बलशाली था कि उसके आघात से किसी के भी शरीर के टुकड़े हो जाते थे लेकिन बलरामजी उस आघात से विचलित नहीं हुए. उसने दोबारा अफना बल समेटा और फिर से बलरामजी पर दुलत्ती चलाई.
इश बार बलरामजी ने एक ही हाथ से उसके दोनों पैर पकड़ लिए और उसे आकाश में घुमाकर एक ताड़ के पेड़ पर दे मारा. घुमाते समय ही उस गधे के प्राण पखेरू उड़ गए. एक के बाद एक कई ताड़ के पेड़ उस प्रहार से उखड़कर जमीन पर गिर गए.
ऐसा लगा जैसे धरती डोलने लगी हो. धेनुकासर की इस गति को देखकर उसके भाई-बंधु अनेकों गदहे वहां पहुंचे. बलरामजी तथा श्रीकृष्ण ने सभी को मारकर उस वन को भयमुक्त किया. उनके मित्रों ने जी भरके फल का स्वाद चखा.
ग्वालबाल बलराम के बल की प्रशंसा करते नहीं थकते थे. ग्वालबालों ने मीठे फल खाएं भी और बटोकर अपने घर को लेकर चले.