बुद्धि ठीक न हो तो साक्षात ईश्वर और उनका वरदान भी कल्याण नहीं करा सकता

बुद्धि ठीक न हो तो साक्षात ईश्वर और उनका वरदान भी कल्याण नहीं करा सकता

तीन लोग एक मंदिर के सामने भिक्षा मांग रहे थे। उनमें से दो अत्यंत वृद्ध थे, जो अपने बल पर खड़े भी नहीं हो सकते थे। तीसरा उनका पुत्र था, जो स्वस्थ था लेकिन मां-बाप के साथ भिक्षा मांग रहा था। शायद यह कोई पारिवारिक कार्य था, इसलिए वह उनका साथ दे रहा था।

मंदिर में निवास करने वाले एक देवता की पत्नी इन तीनों की दशा को कई दिनों से देख रही थीं। एक दिन उन्हें इन भिक्षुकों की हालत पर गहरी दया आ गई। उन्होंने अपने स्वामी से कहा, "स्वामी, मेरे मन में एक विचार बार-बार आता है। जब जीवन का अधिकांश समय मंदिर के सामने बिताने वाले इस परिवार का कल्याण नहीं हो पा रहा, तो कहीं ऐसा न हो कि इससे लोगों की मंदिरों पर आस्था कम हो जाए।"

देवता ने हंसते हुए पूछा, "ऐसी शंका तुम्हारे मन में क्यों आई?"

देवी ने कहा, "जो लोग हमेशा मंदिर के द्वार पर रहते हैं और मंदिर की पुण्य छाया में हैं, उनका जीवन यदि नहीं सुधर रहा, तो फिर कभी-कभार दर्शन करने से क्या फायदा होगा? यदि भक्तों के मन में यह विचार आना शुरू हो गया तो मंदिरों की आस्था कमजोर हो जाएगी। इसलिए आप कृपया इनका तत्काल कल्याण करें।"

देवता ने उत्तर दिया, "देवी, मंदिरों की आस्था और दर्शन के फल को लेकर आपका संदेह निराधार है। सच्चे भक्त निराश नहीं होते, यह समय-समय पर उन्हें अनुभव होता रहता है। परन्तु इन भिखारियों की हालत ठीक नहीं हो सकती क्योंकि इनका मन मैला है और सोच छोटी है।"

फिर भी देवी ने अपनी बात नहीं मानी। उनकी जिद के आगे देवता विवश हो गए। दोनों देवी-देवता उस भिक्षुक परिवार के पास गए।

देवता ने भिक्षुकों से कहा, "तुम लोग बहुत समय से इस मंदिर के सामने बैठ रहे हो। आज कोई एक वरदान मांगो जिससे तुम्हारे कष्ट दूर हो जाएं।"

भिक्षुक परिवार प्रसन्न हो गया। सबसे पहले वृद्ध स्त्री बोली, "हे देव! आप प्रसन्न हैं तो मुझे बीस वर्ष की सुंदर नवयुवती बना दें, जिसके सौंदर्य की तुलना कोई न कर सके।"

देवता ने तथास्तु कहा और वह देखते ही देखते अत्यंत सुंदर युवती बन गई। अपने फटेहाल शरीर और रूपवती पत्नी को देखकर उसका पति जल-भुन गया। वह चिढ़कर कोसने लगा, "मुझे तुम्हारी मन की इच्छाएं पहले से ही पता थीं। तू मेरे अशक्त होने पर मेरा साथ छोड़ देगी। इसलिए मैंने कभी कोई धन सहेज कर नहीं रखा, वरना मैं उसे लेकर कहीं चला जाता।"

देवी यह सब देखकर हैरान थीं। देवता ने सोचा कि वे इस मन की कुटिलता का प्रमाण देना चाहते हैं, इसलिए वे वहीं रुके रहे।

फिर देवता ने कहा, "तुम इसे कोसना बंद करो। मैं तुम्हें भी एक वरदान दे सकता हूं। बताओ क्या चाहिए।"

गुस्से में उसने मांग लिया, "मेरी पत्नी सुअर बन जाए।"

देवता ने उसकी इच्छा पूरी की और वह सुंदर स्त्री तुरंत सुअर में बदल गई।

यह सब देखकर उनका पुत्र छाती पीटकर रोने लगा। देवता ने उससे कहा, "रोना बंद करो, तुम भी कोई वरदान मांग सकते हो।"

पुत्र ने कहा, "हे देव, मेरी माता को पहले जैसी वृद्धा स्त्री बना दीजिए।"

देवता ने उसकी इच्छा पूरी कर दी। तीनों फिर से पूर्व की स्थिति में लौट आए और मंदिर के सामने भीख मांगने लगे।

देवता ने अपनी पत्नी से कहा, "तीन वरदानों में यह लोग संसार के सारे ऐश्वर्य, सुख और साधन मांग सकते थे, लेकिन इनकी बुद्धि इतनी बिगड़ चुकी है कि ये एक-दूसरे से द्वेष करते हैं। इस सोच का परिणाम आप देख ही चुकी हैं।"

यह कथा हमें यह सिखाती है कि जीवन में सच्चा कल्याण और सुख बुद्धि की शुद्धि और विचार की श्रेष्ठता पर निर्भर करता है। केवल वरदान या बाहरी आशीर्वाद से कुछ भी स्थायी रूप से ठीक नहीं हो सकता यदि व्यक्ति का मन मैला और सोच सीमित हो।

अधिकतर लोगों के दुख का कारण उनकी अपनी कठिनाई नहीं होती, बल्कि दूसरों की तरक्की से उत्पन्न द्वेष होता है। पहले वे स्वयं भी दूसरों से आगे निकलने के लिए छल-प्रपंच का सहारा लेते हैं, और जब वे सफल नहीं होते, तो दूसरों को नीचा दिखाने की कोशिश में लग जाते हैं।

सच्चा सुख तभी संभव है जब हम अपनी सोच को बड़ा करें, दूसरों के लिए भी अच्छा सोचें और स्वयं की मानसिक शुद्धि करें।