भागवत कथा – शिव, सती और दक्ष यज्ञ प्रसंग

प्रसंग का आरंभ
प्रजापति दक्ष भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्र थे। वे बहुत अहंकारी हो गए थे और अपनी शक्ति, यज्ञ, तथा पद का घमंड करने लगे। उनकी पुत्री सती का विवाह भगवान शिवजी से हुआ था।
शिवजी वैराग्य, सरलता और भस्म-विभूषित स्वरूप के कारण दक्ष को पसंद नहीं थे। दक्ष को लगता था कि शिव उनके पद और यज्ञ मर्यादा का सम्मान नहीं करते।
दक्ष यज्ञ
एक समय प्रजापति दक्ष ने विशाल महायज्ञ का आयोजन किया। उन्होंने सभी देवताओं, ऋषियों और लोकपालों को आमंत्रित किया, परंतु भगवान शिव को जान-बूझकर निमंत्रण नहीं दिया।
सती जी जब यह देखती हैं कि सारे रिश्तेदार यज्ञ में जा रहे हैं, तो वे शिवजी से अनुमति मांगती हैं –
“स्वामी! मेरे पिताजी का घर है, मैं भी यज्ञ में जाना चाहती हूँ।”
शिवजी कहते हैं –
“प्रिये! जहाँ सम्मान न मिले, वहाँ बिना बुलाए जाना उचित नहीं। तुम्हारे पिता के हृदय में मेरे लिए घृणा है, वहाँ जाने से केवल अपमान मिलेगा।”
लेकिन सती का मन बहुत व्याकुल था। वे अपने अधिकार मानकर पिता के घर पहुँच गईं।
सती का अपमान
यज्ञ स्थल पर सती ने देखा कि शिवजी का भाग (हविष्य) अर्पित नहीं किया गया। वहाँ बैठे हुए दक्ष ने सबके सामने भगवान शिव का अपमान किया।
पिता द्वारा अपने पति का अपमान देखकर सती जी का हृदय विदीर्ण हो गया।
उन्होंने सोचा – “जिस शरीर से मुझे यह अपमान सहना पड़ा है, उस शरीर को अब मैं नहीं रख सकती।”
वहीं यज्ञ वेदी पर उन्होंने योगाग्नि से अपने शरीर का परित्याग कर दिया।
भगवान शिव का क्रोध
जब यह समाचार भगवान शिव को मिला, तो वे अत्यंत दुखी और क्रोधित हुए। उन्होंने अपने जटाजूट से एक वीरभद्र और भद्रकाली का प्रकट किया। दोनों ने शिवजी के आदेश से यज्ञ स्थल पर जाकर भारी विध्वंस किया।
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यज्ञ मंडप को तोड़ डाला।
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देवताओं और ऋषियों को दंडित किया।
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और दक्ष का सिर काटकर उसे यज्ञवेदी में डाल दिया।
समापन और क्षमा
बाद में देवताओं और ब्रह्माजी की प्रार्थना से भगवान शिव शांत हुए।
शिवजी ने दक्ष को बकरे का सिर लगाकर पुनर्जीवित किया।
दक्ष का अहंकार चूर हुआ और उन्होंने शिवजी से क्षमा माँगी।
यज्ञ अधूरा पड़ा था, परंतु भगवान विष्णु और शिवजी की कृपा से वह पूर्ण हुआ।
प्रसंग का महत्व
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अहंकार का नाश – दक्ष का घमंड उन्हें विनाश की ओर ले गया।
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पति-पत्नी का धर्म – सती का पति के अपमान को न सह पाना पतिव्रता धर्म की श्रेष्ठता दिखाता है।
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भगवान शिव की करुणा – अपमान और विनाश के बाद भी उन्होंने दक्ष को क्षमा कर दिया।
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भक्ति संदेश – यज्ञ, तपस्या, धन, पद सब व्यर्थ हैं यदि उनमें ईश्वर और संतों का सम्मान नहीं है।
यह प्रसंग भागवत कथा और शिव पुराण दोनों में आता है और इसका भाव यही है कि “ईश्वर के भक्त और साधु का अपमान करने वाला कभी सुख नहीं पाता।”