दूसरे सप्तर्षि विश्वामित्र: वे 7 बातें जो आप शायद नहीं जानते
सप्तर्षियों में प्रमुख स्थान रखने वाले ऋषि विश्वामित्र भारतीय इतिहास और धर्मग्रंथों में अपने अद्वितीय योगदान और जीवन संघर्षों के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। उनके जीवन की कई ऐसी घटनाएं हैं जो न केवल प्रेरक हैं, बल्कि आध्यात्मिक और सामाजिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
यहाँ हम विश्वामित्र से जुड़ी 7 कम चर्चित लेकिन अत्यंत रोचक बातें प्रस्तुत कर रहे हैं:
1. क्षत्रिय से ब्रह्मर्षि तक का सफर
विश्वामित्र का जन्म एक क्षत्रिय कुल में हुआ था। उनका मूल नाम विश्वरथ था। वे राजा गाधि के पुत्र थे और कुशवंश में जन्मे थे। कालांतर में, कठिन तपस्या और आत्मबोध के बल पर उन्होंने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर गायत्री माता ने उन्हें 'विश्वामित्र' नाम दिया, जिसका अर्थ है – ‘विश्व का मित्र’।
2. चौसर की हार और हठी स्वभाव
एक बार वे राजा के रूप में अपनी रानी से चौसर खेल रहे थे। खेल में हार जाने के बाद उन्होंने पासों को यह कहकर तोड़ दिया – “मैं यह हार स्वीकार नहीं करता, चाहे यह खेल ही क्यों न हो।”
यह घटना उनके हठी और दृढ़ संकल्पी स्वभाव को दर्शाती है, जो आगे चलकर उनके तपस्वी जीवन का आधार बना।
3. त्रिशंकु स्वर्ग और वशिष्ठ से प्रतिस्पर्धा
विश्वामित्र और वशिष्ठ के बीच प्रसिद्ध प्रतिस्पर्धा की कई कथाएं हैं। एक प्रमुख कथा है – त्रिशंकु स्वर्ग की।
इक्ष्वाकु वंश के राजा त्रिशंकु ने सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा जताई। वशिष्ठ ने असमर्थता जताई, और उनके पुत्रों ने त्रिशंकु को चांडाल बनने का श्राप दे दिया।
त्रिशंकु तब विश्वामित्र के पास पहुंचे। विश्वामित्र ने उन्हें अपनी तपस्या के बल पर सशरीर स्वर्ग भेजा। परंतु इंद्र ने त्रिशंकु को नीचे गिरा दिया। विश्वामित्र ने त्रिशंकु को आकाश में ही रोक दिया और वहीं एक नया त्रिशंकु स्वर्ग रच दिया।
इसी के साथ उन्होंने दक्षिण दिशा में एक नया सप्तर्षि मंडल भी स्थापित कर दिया।
4. तपस्या से ब्राह्मण पद की प्राप्ति
ब्राह्मणत्व पाने के लिए उन्होंने दीर्घकालीन और अत्यंत कठोर तप किया। जब तप की समाप्ति पर वे भोजन करने बैठे, तो इंद्र भिक्षुक रूप में आए। विश्वामित्र ने सारा भोजन उन्हें दे दिया और स्वयं उपवास रखा।
बाद में उन्होंने प्राणायाम द्वारा श्वास नियंत्रित करके और भी कठिन तप किया। अंततः ब्रह्मा ने उन्हें ब्राह्मण पद प्रदान किया।
परंतु उन्होंने इसे तभी स्वीकार किया जब वशिष्ठ ने उन्हें स्वयं ब्राह्मर्षि कहकर मान्यता दी। यह क्षण उनके जीवन की सबसे बड़ी विजय थी।
5. रंभा को श्राप और मेनका संग प्रेम
इंद्र ने उनकी तपस्या भंग करने के लिए अप्सरा रंभा को भेजा। क्रोधित होकर विश्वामित्र ने रंभा को पत्थर बनने का श्राप दे दिया।
हालांकि, जब अप्सरा मेनका ने उनसे विवाह का प्रस्ताव रखा, तो उन्होंने उसके साथ 10 वर्ष बिताए और उनकी एक पुत्री शकुंतला हुई।
शकुंतला का विवाह राजा दुष्यंत से हुआ, और उनके पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष का नाम पड़ा।
6. राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा
प्रसिद्ध सत्यनिष्ठ राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा लेने वाले महर्षि विश्वामित्र ही थे। उन्होंने हरिश्चंद्र को कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी सत्य पर अडिग रहने की प्रेरणा दी।
यह प्रसंग सत्य, तप और धैर्य की पराकाष्ठा को दर्शाता है, जिस पर हम एक अलग विस्तृत लेख में चर्चा करेंगे।
7. राम-लक्ष्मण के गुरु और राम-सीता विवाह के सूत्रधार
महर्षि विश्वामित्र ही थे जिन्होंने राजा दशरथ से आग्रह कर राम और लक्ष्मण को वन में अपने साथ यज्ञ की रक्षा हेतु ले गए।
वहीं ताड़का वध, मारिच-सुबाहु का संहार, और बाद में सीता-स्वयंवर में राम का धनुष भंजन – ये सब घटनाएं विश्वामित्र की ही प्रेरणा और मार्गदर्शन में संपन्न हुईं।
इस प्रकार वे राम-सीता विवाह के प्रमुख सूत्रधार बने।
निष्कर्ष
महर्षि विश्वामित्र का जीवन संघर्ष, आत्मनियंत्रण, तप, प्रेम, क्रोध, क्षमा और ज्ञान की पराकाष्ठा का अद्भुत उदाहरण है। वे न केवल सप्तर्षियों में गिने जाते हैं, बल्कि वे एकमात्र ऐसे ऋषि हैं जिन्होंने मानव से महामानव बनने की सम्पूर्ण यात्रा स्वयं तय की।
वे आज भी प्रेरणा का स्त्रोत हैं कि मनुष्य चाहे तो संकल्प, तप और साधना से देवताओं के समकक्ष स्थान प्राप्त कर सकता है।
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