ब्रह्मा ने मनुष्य की रचना क्यों की? भूख और प्यास क्यों दी?

सृष्टि की शुरुआत
ब्रह्मा जी ने सृष्टि का आरंभ पंचभूत – अग्नि, वायु, जल, आकाश और पृथ्वी – जैसे देवों की रचना से किया।
लेकिन समस्या यह थी कि ये देवगण भूख और प्यास से पीड़ित थे। उन्होंने ब्रह्मा से कहा कि हममें चेतना है, शक्ति है, लेकिन रहने के लिए कोई उपयुक्त स्थान नहीं है, जहां हम निवास कर सकें और भोजन प्राप्त कर सकें।
शरीर की खोज
ब्रह्मा ने सबसे पहले गाय का शरीर रचा। देवताओं ने देखा, पर कहा कि यह शरीर हमारे योग्य नहीं है।
फिर उन्होंने घोड़े का शरीर बनाया। वह भी उन्हें उपयुक्त नहीं लगा।
मनुष्य की रचना
तब ब्रह्मा ने विचार कर के मनुष्य का शरीर रचा। देवगण उसे देखकर प्रसन्न हुए और कहा – यही शरीर सबसे उत्तम है, हम इसी में निवास करेंगे।
ब्रह्मा ने कहा – अपने योग्य स्थान खोज लो और प्रवेश कर जाओ।
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अग्नि ने पेट (उदर) को चुना
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वरुण ने जीभ (रसना) को
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वायु ने नासिका को
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आकाश ने शरीर के रिक्त स्थानों को
भूख और प्यास की मांग
अब भूख और प्यास ने ब्रह्मा से कहा – हमारे लिए भी कोई स्थान तय करें।
ब्रह्मा बोले – मैं तुम्हें सभी देवों में बाँट देता हूँ। जब ये देव आहार से तृप्त होंगे, तब तुम भी तृप्त हो जाओगे।
लेकिन चिंता यह थी कि इन देवों को तृप्त करने के लिए अन्न कहाँ है?
अन्न की उत्पत्ति
ब्रह्मा ने अन्न की रचना की। पर अन्न भयभीत हो गया – सोचने लगा कि मुझे पैदा होते ही खा लिया जाएगा। इसलिए वह भाग गया।
देवताओं ने वाणी से, मंत्र पढ़कर उसे रोकने की कोशिश की – पर अन्न नहीं रुका।
फिर इंद्रियाँ – नाक, कान, आँखें, त्वचा – सभी ने उसे पकड़ने की कोशिश की। परंतु वह किसी के भी वश में नहीं आया।
अन्न का ग्रहण
अंत में मनुष्य ने मुख द्वारा अन्न को ग्रहण किया।
तभी जाकर देवताओं को तृप्ति मिली, और शरीर में प्राण का संचार हुआ।
शरीर में जीवन आया।
आत्मबोध की शुरुआत
मनुष्य ने जब अपने चारों ओर की सृष्टि को देखा – तो उसे अनुभव हुआ कि यह सब मेरे बस की बात नहीं।
कोई ऐसी शक्ति है, जो इन सबसे ऊपर है, जो यह सब नियंत्रित कर रही है।
यही विचार आते ही उसे परमात्मा का अनुभव हुआ। उसने जाना कि सृष्टि का एक कर्ता है – और वह है ईश्वर।
इस कथा से क्या शिक्षा मिलती है?
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मनुष्य का शरीर अनेक शक्तियों का संगम है।
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भूख और प्यास केवल शारीरिक नहीं, मानसिक और आत्मिक भी होती हैं।
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केवल मंत्र पढ़ना या इंद्रियों से अनुभव करना पर्याप्त नहीं, कर्म करना आवश्यक है।
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अन्न – अर्थात जीवन के संसाधन – केवल चाहने से नहीं मिलते, उन्हें अर्जित करना पड़ता है।
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मनुष्य को ही ईश्वर के अनुभव और साक्षात्कार का विशेष अधिकार मिला है।
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सच्चा जीवन वही है, जो आत्मबोध और ईश्वर प्राप्ति की दिशा में अग्रसर हो।