भागवत कथाः श्रीकृष्ण–बलराम द्वारा वत्सासुर का उद्धार

वृन्दावन की भूमि पर जब स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लिया, तब प्रकृति ने स्वयं को उनके स्वागत के लिए संवार लिया। यमुना की लहरें, गोवर्धन की छाया, नंदबाबा की गायें और वृन्दावन की लताएँ—all कुछ अद्भुत हो गया था।
सभी देवताओं ने प्रभु की लीलाओं का साक्षी बनने के लिए विविध रूपों में अवतार लिया — कोई पक्षी बना, कोई पेड़, कोई ग्वालबाल, और कोई गोधूलि की हवा बनकर श्रीकृष्ण का स्पर्श पाने को आतुर।
वत्सासुर की योजना
गोकुल में जब पूतना और तृणावर्त जैसे राक्षसों का वध हुआ, तो मथुरा में बैठे कंस को भारी चिंता हुई। उसे ज्ञात हो चुका था कि वासुदेव-देवकी का पुत्र जीवित है और दिन-ब-दिन प्रलय की लीलाएं कर रहा है।
कंस ने अपने दैत्य-मित्रों की सभा बुलाई और आदेश दिया कि किसी भी प्रकार से श्रीकृष्ण का वध किया जाए।
उसने अपने एक विश्वासपात्र राक्षस वत्सासुर को गोकुल भेजा, जिसने एक बछड़े का रूप धारण किया और गोपालों के झुंड में जा मिला। उसका उद्देश्य था अवसर पाकर श्रीकृष्ण का वध करना।
श्रीकृष्ण की दिव्य दृष्टि
एक दिन, श्रीकृष्ण और बलराम अपनी ग्वाल-बाल मंडली के साथ गायों को चराते हुए वन में पहुँचे। दोपहर हो चुकी थी, और वे सब कदंब के वृक्षों की छाँव में विश्राम कर रहे थे।
तभी श्रीकृष्ण की दृष्टि बछड़ों के झुंड पर पड़ी। उन्होंने तुरंत अनुभव किया कि एक बछड़ा अन्य सभी से अलग है — उसके हावभाव, आँखों की चाल, शरीर की गति, सब कुछ सामान्य नहीं था।
उन्होंने बलरामजी को संकेत दिया — "यह कोई साधारण बछड़ा नहीं है, यह राक्षस है।"
बलराम का बल और श्रीकृष्ण का निर्णय
बलरामजी ने बिना देर किए उस बछड़े की पूंछ पकड़ी और उसे हवा में घुमाकर ज़ोर से एक वृक्ष पर दे मारा। वह तड़पता हुआ असली रूप में आ गया — भयानक शरीर, तीव्र नेत्र और लहू से सना राक्षसी चेहरा।
तभी उसने श्रीकृष्ण पर आक्रमण करने की कोशिश की, लेकिन भगवान ने केवल एक प्रहार में उसका उद्धार कर दिया। जैसे ही उन्होंने उसे मर्म स्थान पर मारा, उसकी जिह्वा बाहर आ गई और वह तड़पता हुआ धराशायी हो गया।
ग्वालबालों की प्रसन्नता और वृंदावन का उत्सव
इस अद्भुत घटना को देखकर ग्वालबाल पहले तो भयभीत हुए, पर जब उन्होंने देखा कि उनका प्रिय सखा काल का भी काल है, तो आनंद से नाच उठे। वे प्रभु श्रीकृष्ण को कंधों पर बैठाकर जय-जयकार करने लगे।
शाम को सबने जब नंदबाबा और यशोदा माता को यह कथा सुनाई, तो नंदबाबा का हृदय गर्व से भर गया, लेकिन माता यशोदा का हृदय मातृत्व की ममता से कांप उठा।
उन्होंने श्रीकृष्ण को सीने से लगाकर कहा — “तू कितना भी शक्तिशाली हो बेटा, मेरी गोदी में ही तेरा असली सुख है।”
कथा का सार
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वत्सासुर का रूप — जब दुष्टता मासूमियत की आड़ में छुपती है, तब भी सत्य उसे पहचान लेता है।
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बलरामजी का बल और श्रीकृष्ण की दृष्टि — जीवन में बल और विवेक दोनों आवश्यक हैं।
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माता यशोदा की ममता — चाहे बालक स्वयं ईश्वर क्यों न हो, माँ के लिए वह सदा एक नन्हा बच्चा ही रहता है।
निष्कर्ष
वत्सासुर वध की यह लीला हमें सिखाती है कि धर्म को नष्ट करने की कितनी भी कोशिश क्यों न हो, प्रभु अपने भक्तों की रक्षा के लिए सदैव सजग रहते हैं। वे न केवल दुष्टों का संहार करते हैं, बल्कि उन्हें मोक्ष देकर उद्धार भी करते हैं।