भक्ति बुद्धि से नहीं, भाव से प्राप्त होती है

भक्ति बुद्धि से नहीं, भाव से प्राप्त होती है

चैतन्य महाप्रभु एक बार अपने शिष्यों के साथ यात्रा कर रहे थे। रास्ते में उन्होंने एक गांव में कुछ लोगों को एक स्थान पर एकत्रित देखा। वहां एक युवक श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक पढ़ रहा था और साथ ही रो भी रहा था।

चैतन्य महाप्रभु ने जब उसके उच्चारण पर ध्यान दिया, तो उन्हें यह आभास हुआ कि उस युवक को संस्कृत का उचित ज्ञान नहीं है। इसके बावजूद, वह गीता के श्लोक पढ़ते समय गहरे भाव में डूबा हुआ था। यह देख महाप्रभु को जिज्ञासा हुई।

वह उसके पास गए और पूछ बैठे,
"वत्स, क्या तुम जो कुछ पढ़ रहे हो, उसका अर्थ भी जानते हो?"

युवक की आंखें आंसुओं से भरी थीं। उसने संयम के साथ उत्तर दिया,
"नहीं प्रभु, मुझे इसका अर्थ नहीं आता।"

चैतन्य महाप्रभु आश्चर्यचकित रह गए। उन्होंने पूछा,
"यदि तुम अर्थ नहीं जानते, तो फिर इतना भावुक क्यों हो रहे हो?"

युवक ने विनम्रता से उत्तर दिया,
"प्रभु, मैं तो एक अज्ञानी व्यक्ति हूं। मुझे श्लोकों का शाब्दिक अर्थ नहीं पता, पर जब मैं यह सोचता हूं कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को रणभूमि में उपदेश दे रहे हैं, तो मेरा हृदय भावविभोर हो उठता है। यही सोचकर मेरी आंखों से आंसू बहने लगते हैं।"

यह सुनकर चैतन्य महाप्रभु भावुक हो गए। उन्होंने उस युवक को गले से लगा लिया और अपने शिष्यों से कहा,
"इस युवक ने गीता का वास्तविक सार समझ लिया है। बाकी लोग केवल शब्दों को सुनते हैं, लेकिन यह उसे हृदय से जी रहा है।"

इस कथा का सार यह है:
ईश्वर की भक्ति केवल बौद्धिक ज्ञान या शास्त्रों के अर्थ जानने से नहीं प्राप्त होती। भक्ति में सबसे महत्वपूर्ण है हृदय की गहराई से उठने वाला भाव और समर्पण।

बुद्धि चाहे जितनी भी तीव्र क्यों न हो, वह केवल मार्ग दिखा सकती है। लेकिन प्रभु की प्राप्ति के लिए भाव, श्रद्धा और प्रेमपूर्ण समर्पण ही सच्चा माध्यम है।