शनि देवता के जन्म की कहानी

शनिदेव संक्षिप्त परिचय
पुष्य, अनुराधा, और उत्तरा भाद्रपद नक्षत्रों के स्वामी शनि देव को तीनो लोकों का न्यायकर्ता कहा गया है। न्यायकर्ता का काम ही होता है उचित अनुचिकर्मों का फल प्रदान करना। अब यदि किसी के जीवन में शनि की महादशा, अन्तर्दशा या साढ़ेसाती चल रही है और वह कष्ट भोग रहा है तो इसके लिए शनि देव को दोष देना कदापि उचित नहीं है। शनि देव ने किसी को कष्ट देने का ठेका थोड़े ही ले रक्खा है। यदि हम कष्ट भोग रहे हैं तो यकीन मानिये हम स्वयं ही उसके लिए जिम्मेदार हैं। हमें भले ही उसका कारण पता हो या न हो। न्यायकर्ता को तो कठोर होना ही पड़ता है, नहीं तो वह न्याय किस प्रकार करेगा। यदि जातक ने पुण्य कर्म अर्जत किये हैं तो शनि की महादशा, अन्तर्दशा में वह दिन दुगनी रात चौगुनी तरक्की करता है, और यदि अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ाने या अन्य किसी लाभ के लिए अनुचित कर्मों का सहारा लिया है तो ऐसे लोगों को शनि के कोप से स्वयं भगवान्शिवशंकर भी नहीं बचा सकते हैं। किसी भी प्रकार के पाठ पूजन से, दान पुण्य से या अन्य किसी शास्त्रोक्त कर्म से भी शनि के कोप को टाला नहीं जा सकता है। यदि जन्म कुंडली में शनि देव शुभ हों तो ऐसे शनि जातक से स्वयं तप करवाते हैं और शुभ फल प्रदान करते हैं और यदि अशुभ हों तो जातक को आलस्य, प्रमाद से भर देते हैं। जातक को उचित अनुचित का भान नहीं रहता। जातक का कोई काम सिरे नहीं चढ़ता और जातक दिन रात चिंता ग्रस्त रहने लगता है। पेट खराब रहने लगता है, गुदा द्वार में पीड़ा रहती है, जोड़ों मे दर्द रहने लगता है और जातक स्वयं अपने को कष्टों से भर देता है। अनुचित कर्म से क्षणिक लाभ तो मिल सकता है लेकिन इसके दूर गामी परिणाम बहुत भयंकर कहे गए हैं। शायद यही कारण है की दया, करुणा व्प्रेम को सभी धर्मों का मूल कहा गया है। हाथी, घोड़ा, हिरण, गधा, कुत्ता, भैंसा और गृद्ध शनि देव की सवारियां कही गयी हैं। शनिदेव मकर, कुम्भ राशि के स्वामी हैं और तुला में २० डिग्री तक उच्च व्मेष में २०डिग्री तक नीच के कहे गए हैं व्विभिन्न लग्न कुंडलियों में कारक, अकारक या समगृह के रूप में उचित भूमि का अदा करते हैं। प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी शनि देव की कहानी बहुत से ज्योतिषीय रहस्यों को उजागर करती है।
शनिदेव कि जन्म कथा
शनिदेव के जन्म के बारे में स्कंदपुराण के काशीखंड में जो कथा कही गयी है वह कुछ इस प्रकार से है की राजा दक्ष की कन्या संज्ञा का विवाह सूर्य देवता के साथ हुआ। संज्ञा सूर्य देवता के तेज से परेशान रहने लगी थी। वह अक्सर सोचा करती थी कि किसी तरह तपादि कर्म से सूर्यदेव के तेज को कम करना होगा। कुछ समय पश्चात्संज्ञा ने वैवस्वतमनु, यमराज और यमुना तीन संतानों को जन्म दिया। तब एक दिन वे निर्णय पर पहुंची की वे तपस्या कर सूर्यदेव के तेज को कम करेंगी। लेकिन बच्चों के पालन पोषण में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्नन हो और सूर्यदेव को इसकी भनक भी न लगे इसलिए उन्होंने अपने तप से अर्जित संकल्प से अपनी हमशक्ल को उत्पन्न किया जिसका नाम उन्होंने संवर्णा रखा। संज्ञा ने बच्चों और सूर्य देव की जिम्मेदारी अपनी छाया संवर्णा को दे दी और स्वयं तप करने के लिए महल से पिता के घर के लिए प्रस्थान किया। जाते जाते संज्ञा ने स्वर्णा से इस राज को राज ही रहने देने की आज्ञादी।
जब संज्ञा ने पिता को अपनी परेशानी बताई तो पिता ने डांट फटकार लगाकर उसे वापस भेज दिया। परन्तु संज्ञा सूर्य देव के पास वापस न जाकर वन में चली गई। उन्होंने एक घोड़ी का रूप धारण कर तपस्या आरम्भ कर दी। उधर छाया अपने धर्म का पालन करती रही उसे छाया रूप होने के कारण उन्होंने सूर्य देव के तेज को आसानी से वहन कर लिया। सूर्य देव को जरा भी आभास नहीं हुआ कि उनके साथ रहने वाली संज्ञा नहीं बल्कि कोई और है। सूर्य देव और छाया के मिलन से भी मनु, शनि देव और भद्रा (तपती) तीन संतानों ने जन्म लिया।