ऋषभदेव, भरत, और नव योगेश्वर की दिव्य कथा

ऋषभदेव, भरत, और नव योगेश्वर की दिव्य कथा

इस सृष्टि का प्रारंभ स्वायम्भुव मनु और शतरूपा से हुआ। स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत हुए। प्रियव्रत के पुत्र आग्नीध्र, आग्नीध्र के पुत्र नाभि और नाभि के पुत्र हुए भगवान ऋषभदेव। वे भगवान वासुदेव के अंशावतार थे, जिन्होंने संसार में मोक्ष धर्म का उपदेश देने के लिए अवतार लिया था।

ऋषभदेव के 100 पुत्र हुए, जो सभी वेदों के पारगामी, महान विद्वान और धर्मज्ञ थे। उनमें सबसे बड़े थे राजर्षि भरत, जो भगवान नारायण के परम भक्त थे। उन्हीं के नाम पर इस भूमि का नाम 'अजनाभवर्ष' से बदलकर 'भारतवर्ष' पड़ा।

राजर्षि भरत चक्रवर्ती सम्राट थे, जिन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी पर राज्य किया, लेकिन अंततः उन्होंने सब कुछ त्यागकर वनगमन कर लिया। वहाँ कठोर तप कर उन्होंने भगवान की उपासना की और तीसरे जन्म में भगवत्प्राप्ति की।

ऋषभदेव के शेष 99 पुत्रों में से 9 पुत्रों को भारतवर्ष के नौ खंडों (नौ द्वीपों) का अधिपति बनाया गया। 81 पुत्र कर्मकांड में निपुण होकर ब्राह्मण धर्म के प्रचारक बने और 9 पुत्रों ने सन्यास आश्रम को अपनाया। यही नौ पुत्र आत्मविद्या के महान साधक और नव योगेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए।

इन नौ योगेश्वरों के नाम हैं –
कवि, हरि, अंतरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन।

ये योगेश्वर जीवन्मुक्त महात्मा थे। वे दिगंबर वेश में विचरण करते हुए आत्मज्ञान, भगवद्भक्ति और मोक्षमार्ग का उपदेश देते थे। वे देवता, सिद्ध, यक्ष, गंधर्व, मुनि, नाग, मनुष्य, ब्राह्मण, गौ आदि सभी लोकों और स्थानों में स्वेच्छा से भ्रमण करते थे। उन्हें कहीं कोई रोक-टोक नहीं थी।

नव योगेश्वर और महाराज विदेह (निमी) संवाद -

एक बार महाराज निमि ने एक महान यज्ञ का आयोजन किया था। उसी समय ये नौ योगीश्वर स्वेच्छा से वहाँ पधारे। राजा निमि ने उनका आदरपूर्वक स्वागत किया और भगवत धर्म जानने की प्रार्थना की।

1. योगीश्वर कवि ने –

भगवत प्राप्ति के लिए आवश्यक भागवत धर्मों का उपदेश दिया। उन्होंने बताया कि कैसे भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति ही मोक्ष का उपाय है।

2. योगीश्वर हरि ने –

भगवद्भक्तों के लक्षण, धर्म और स्वभाव का वर्णन किया।

3. योगीश्वर अंतरिक्ष ने –

माया और उसके स्वरूप का विस्तार से वर्णन किया।

4. योगीश्वर प्रबुद्ध ने –

माया को पार करने के साधन और उपाय बताए।

5. योगीश्वर पिप्पलायन ने –

परब्रह्म परमात्मा नारायण के स्वरूप और उपासना की महिमा बताई।

6. योगीश्वर आविर्होत्र ने –

राजा निमि के प्रश्न पर कर्मयोग का उपदेश दिया और बताया कि कैसे कर्मों के बंधनों से मुक्त होकर नैष्कर्म्य अवस्था प्राप्त की जा सकती है।

7. योगीश्वर द्रुमिल ने –

भगवान के विभिन्न युगों में हुए अवतारों का वर्णन किया।

8. योगीश्वर चमस ने –

उन लोगों की दुर्गति बताई जो भगवान से विमुख होकर केवल सांसारिक भोगों में लगे रहते हैं। वे अंततः घोर नरकों में जाते हैं, क्योंकि उन्होंने ईश्वर की भक्ति नहीं की।

9. योगीश्वर करभाजन ने –

प्रश्न के उत्तर में चारों युगों में भगवान के रंग, रूप और उपासना पद्धति का वर्णन किया:

  • सतयुग में भगवान श्वेत वर्ण के, जटा और वल्कल धारण करते हैं। लोग तप और ध्यान से उनकी उपासना करते हैं।

  • त्रेतायुग में भगवान रक्तवर्ण के होते हैं और यज्ञ सामग्री धारण करते हैं। लोग वेदों के अनुसार यज्ञों द्वारा उनकी आराधना करते हैं।

  • द्वापरयुग में वे श्यामवर्ण, पीताम्बरधारी होते हैं और शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण करते हैं। लोग मूर्ति रूप में पूजा करते हैं।

  • कलियुग में वे कृष्णवर्ण के होते हैं और नाम-संकीर्तन द्वारा उनकी आराधना होती है। यही साधन श्रेष्ठ और सुलभ है।

समापन और संदेश -

इस प्रकार जब राजा निमि को नव योगेश्वरों से भागवत धर्म, भक्ति, माया, योग, कर्म, अवतार, तथा ईश्वर की प्राप्ति के साधन की सम्पूर्ण शिक्षा मिल गई, तब वे नवों योगीश्वर अन्तर्धान हो गए।

यह कथा न केवल ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व की है, बल्कि यह मानव जीवन के परम उद्देश्य — आत्मसाक्षात्कार और भगवत्प्राप्ति की ओर मार्गदर्शन करती है।