प्रेत ने कैसे जगाई हरिप्राप्ति की आस: एक साधु की अलौकिक कथा
भक्ति का मार्ग सरल नहीं होता। यह श्रद्धा, समर्पण और प्रतीक्षा की परीक्षा लेता है। किन्तु जब यह प्रेमपूर्ण होता है, तो परमात्मा स्वयं अपने भक्त के समीप आ जाते हैं। ऐसा ही एक विलक्षण प्रसंग है — एक साधु, एक प्रेत और श्रीकृष्ण दर्शन की अलौकिक लीला का।
निष्काम साधना में लीन एक बाबा
ब्रजमंडल के नंदग्राम में, यशोदा कुंड के पीछे एक गुफा में एक वृद्ध साधु निष्काम भाव से वर्षों से वास कर रहे थे। वे दिन में केवल एक बार, संध्या के समय, शौच और मधुकरी के लिए बाहर निकलते और फिर पुनः ध्यान में लीन हो जाते।
वृद्धावस्था के कारण वे कहीं आना-जाना नहीं करते थे, लेकिन अन्य साधुओं के आग्रह पर एक बार श्री गोवर्धन में नाम यज्ञ महोत्सव में भाग लेने चले गए।
रहस्यमयी आवाज़ और एक असाधारण भेंट
तीन दिन बाद जब बाबा संध्या समय लौटे, तब अंधकार हो चुका था। जैसे ही वे गुफा में प्रविष्ट हुए, एक करुण स्वर में किसी ने पुकारा —
"बाबाजी महाशय! पिछले दो दिन से मुझे कुछ भी आहार नहीं मिला।"
बाबा चौंक उठे। उन्होंने पूछा —
"तुम कौन हो?"
स्वर आया —
"बाबा, आप जिस कूकर (कुत्ते) को प्रतिदिन एक टुकड़ा मधुकरी का देते थे, मैं वही हूँ।"
बाबा को यह उत्तर असामान्य प्रतीत हुआ। उन्होंने आग्रहपूर्वक उसका वास्तविक परिचय माँगा।
एक पुजारी से प्रेत बनने की कथा
वह प्रेत बोला —
"बाबा! मैं पूर्व जन्म में इसी नंदग्राम के मंदिर का पुजारी था। एक दिन एक बड़ा लड्डू भोग के लिए आया। मैंने लोभवश उसका भोग न लगाकर स्वयं खा लिया। उसी अपराध के कारण मुझे यह भूत योनि मिली है।"
"अब मैं आपकी छोड़ी हुई मधुकरी का टुकड़ा पाकर अपनी गति की आशा करता हूँ।"
बाबा ने आश्चर्य से पूछा —
"तो क्या तुम्हें श्रीकृष्ण के दर्शन होते हैं?"
प्रेत बोला —
"दर्शन तो होते हैं, लीला भी देखता हूँ, परंतु उस रूप का रस लेने की योग्यता इस योनि में नहीं है।"
बाबा की उत्कंठा और प्रेत की रहस्यमयी युक्ति
बाबा का हृदय कृष्णदर्शन की लालसा से भर उठा। उन्होंने प्रेत से प्रार्थना की कि वह उन्हें भी श्रीकृष्ण के दर्शन करा दे।
प्रेत बोला —
"यह मेरे अधिकार से बाहर है। लेकिन यदि आप दर्शन की लालसा रखते हैं, तो कल संध्या के समय यशोदा कुंड पर जाइए। जब ग्वालबाल गौओं को चराकर लौटेंगे, तब सबसे पीछे जो कृष्णवर्ण का बालक होगा, वही श्रीकृष्ण होंगे।"
यह कहकर प्रेत अंतर्ध्यान हो गया।
अधीर प्रतीक्षा और साक्षात्कार का क्षण
बाबा रातभर बेचैन रहे — कभी हँसते, कभी रोते, कभी नाचते। प्रातःकाल होते ही यशोदा कुंड के समीप एक झाड़ी में छिपकर संध्या की प्रतीक्षा करने लगे।
संध्या हुई। गोधूलि की रज में रँगा आकाश देख उनका हृदय उल्लासित हो उठा। ग्वालबाल अपने-अपने गायों को हाँकते हुए लौट रहे थे। अंत में एक कृष्णवर्ण का बालक आया, जो शरीर को टेढ़ा कर इठलाते हुए चल रहा था।
बाबा ने मन ही मन जान लिया — "यही हैं मेरे श्रीकृष्ण।" वे झाड़ी से निकलकर बालक के चरणों में गिर पड़े।
मधुर संवाद और भक्त की अडिग भक्ति
बालक बोला —
"बाबा! मैं बनिये का बेटा हूँ। मेरे पैर पकड़ लिए, तो माँ डाँटेगी। मैं आपको जो चाहे दूँगा, लेकिन पैर छोड़ दीजिए।"
बाबा ने सब अनसुना कर भावविभोर होकर प्रार्थना की —
"हे प्रभु! अब छल न करो। कृपा कर मेरे प्राणों को शीतल करो। अपने चरणों में स्थान दो।"
रात्रि का समय बीत गया, किंतु बाबा ने चरण नहीं छोड़े। अंततः श्रीकृष्ण बोले —
"बाबा! अब मेरा रूप देखो।"
दिव्य दर्शन और परम मोक्ष
तब श्रीकृष्ण ने त्रिभंग मुद्रा में मुरलीधर रूप का दर्शन दिया। बाबा की आंखों में आँसू छलक उठे, लेकिन उन्होंने पुनः प्रार्थना की —
"हे प्रभु! मैं तो युगल रूप का उपासक हूँ। मुझे सपरिवार दर्शन दीजिए।"
तुरंत ही श्रीश्यामसुंदर, श्रीराधाजी और सखियों सहित यमुना पुलिन पर प्रकट हो गए। उस अलौकिक प्रकाश से बाबा का मन, प्राण, नेत्र — सब श्रीहरि के रूप में लीन हो गए।
अब वे अपनी गुफा में नाचते, गाते, भजन करते प्रभु स्मरण में तल्लीन रहते। अंततः श्रीकृष्ण ने उन्हें अपने धाम बुला लिया।
भक्ति का मर्म: प्रेत और बाबा में अंतर
विचारणीय बात यह है कि —
प्रेत प्रतिदिन श्रीकृष्ण के दर्शन करता था, परंतु उसमें वह प्रेम, वह तड़प नहीं थी। बाबा को पहले ही दर्शन में प्रभु ने अपना धाम दे दिया, क्योंकि उनकी भक्ति संपूर्ण समर्पण से युक्त थी।
बाबा ने प्रभु प्राप्ति के लिए एक प्रेत के चरणों में भी लोट जाने में संकोच नहीं किया। यह भाव, यह प्रेम ही भक्ति की वास्तविक पहचान है।
निष्कर्ष
ईश्वर में नेह लगाने का अर्थ है — अपना सर्वस्व उन्हें समर्पित कर देना।
जो भक्ति केवल मुख तक सीमित हो, जिसमें तड़प और पूर्ण समर्पण न हो — वह अधूरी है, भटकाने वाली है।
प्रभु तो करुणासागर हैं — एक बार पुकार सच्चे मन से हो, वे अवश्य प्रकट होते हैं।