किस प्रकार के लोगों पर होती है ईश्वर की कृपा?

किस प्रकार के लोगों पर होती है ईश्वर की कृपा?

एक समय की बात है, एक महात्माजी अत्यंत प्रभावशाली और ओजस्वी भक्ति कथाएं सुनाते थे। उनकी वाणी में इतनी आत्मीयता और सच्चाई होती थी कि दूर-दूर से लोग उनका सत्संग सुनने आते। उन्हीं की ख्याति एक नगर के प्रसिद्ध सेठजी तक भी पहुंची। सेठजी दान-पुण्य, सत्संग और धर्म में रुचि रखने वाले व्यक्ति थे, इसलिए उन्होंने निश्चय किया कि इस संत के प्रवचन को भी एक बार अवश्य सुनना चाहिए।

लेकिन सत्संग में जाने से पहले उनके मन में एक विचार आया — "आजकल बहुत लोग साधु-संत का वेश तो धारण कर लेते हैं, पर भीतर से सांसारिक ही रह जाते हैं। कहीं ये भी उन्हीं में से न हों?" उन्होंने सोचा, “क्यों न इनको परखा जाए?”

सेठजी की परीक्षा

सेठजी ने अपने कीमती वस्त्र उतार दिए और साधारण, मैले-कुचैले कपड़े पहन लिए। वे एक साधारण मजदूर जैसे लगने लगे और रोज सत्संग में सबसे पीछे एक कोने में बैठकर चुपचाप महात्माजी का प्रवचन सुनने लगे।

एक दिन एक नियमित सत्संगी कई दिनों बाद आया। महात्माजी ने पूछा, “तुम इतने दिनों से कहां थे?”
उसने दुखी मन से बताया कि उसका घर जलकर राख हो गया है, और परिवार अब एक स्कूल के अहाते में शरण लिए हुए है।

महात्माजी ने उपस्थित भक्तों से कहा, “ईश्वर ने यह संकट भेजा है ताकि हमारे त्याग की परीक्षा ले सके। जो जिस रूप में सक्षम है, इस भाई की सहायता करें।”

एक चादर घुमाई गई। लोग अपने सामर्थ्य अनुसार दान देने लगे। जब वह चादर सेठजी के पास पहुंची, तो उन्होंने ₹10,000 दान में दे दिए।
सभी आश्चर्यचकित रह गए — “यह तो कोई मजदूर जैसा दिखता है, पर इतनी बड़ी राशि दान में दे दी!”

सच्ची श्रद्धा की पहचान

अगले दिन जब सेठजी पुनः उसी रूप में सत्संग में आए, तो अब सब उन्हें पहचान चुके थे। सभी उन्हें सम्मान देने लगे और आगे बैठने का आग्रह करने लगे। महात्माजी ने भी उन्हें अपने पास बुलाया।

सेठजी को यह देखकर आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा,
"अब मुझे यकीन हो गया है कि इस संसार में केवल धन की पूजा होती है। जब तक मैं एक सामान्य मजदूर जैसा दिखता था, कोई मुझसे बात तक नहीं करता था। लेकिन जैसे ही मेरे दान का पता चला, सबने मुझे सम्मान देना शुरू कर दिया। महात्माजी, क्या आप भी इसी भ्रम में हैं?"

महात्माजी का उत्तर – त्याग ही सच्ची संपत्ति है

महात्माजी मुस्कुराए और बोले –
"सेठजी, आपको गलतफहमी हुई है। मेरा सम्मान आपके धन के लिए नहीं, आपके भाव के लिए है।"

"धन तो बहुतों के पास होता है, पर त्याग का भाव बहुत विरलों में होता है। आपने दान इसलिए नहीं दिया कि लोग देखें, बल्कि इसलिए दिया क्योंकि किसी की पीड़ा ने आपको भीतर से झकझोर दिया।
यह भाव ईश्वर के बहुत निकट है।"

महात्माजी ने आगे कहा –
"जो व्यक्ति स्वभाव से सज्जन होता है, दूसरों के सुख में प्रसन्न और दुख में व्यथित होता है, जो अहंकार से दूर और दया से पूर्ण होता है — वही वास्तव में ईश्वर का सच्चा भक्त होता है। और ऐसे ही लोगों पर ईश्वर की विशेष कृपा होती है।"

इस प्रसंग से दो महत्वपूर्ण शिक्षाएं मिलती हैं:

  1. जल्दबाज़ी में किसी के बारे में धारणा न बनाएं
    जैसे सेठजी ने सोच लिया कि महात्माजी भी धन के प्रभाव में हैं। सत्य जानने से पहले किसी के व्यवहार को उसके बाहरी रूप या हालात से मत आँकिए।

  2. त्याग और परोपकार ही सच्चा धर्म है
    बहुत से लोग फिजूल की चीज़ों पर पैसे उड़ाते हैं, लेकिन जब किसी जरूरतमंद की मदद करनी हो, तो कंजूसी करने लगते हैं। और अगर करते भी हैं तो केवल नाम कमाने के लिए।

ईश्वर की कृपा किन पर होती है?

  • जो बिना दिखावे के सहायता करता है,

  • जो दूसरों के दुःख में भागीदार बनता है,

  • जो अपने सुख-दुख को स्थिर चित्त से सहता है,

  • जो मदद का अवसर मिलने को सौभाग्य समझता है।

ईश्वर उसे ही कृपा का पात्र बनाते हैं जो भाव से त्यागी और आत्मा से संत हो — भले ही वह गृहस्थ क्यों न हो।

त्याग ही सच्ची तपस्या है। दूसरों के लिए किया गया हर कार्य यज्ञ है। यही श्रीहरि को प्रसन्न करता है और उसी से मनुष्य को सच्ची संतुष्टि, सम्मान और यश की प्राप्ति होती है।