क्रोध है अग्नि समानः रौद्ररूप दिखाकर शिवजी ने पिप्पलाद को समझाया
एक समय की बात है, जब इंद्र ने वृतासुर नामक राक्षस का वध करने के लिए अपना वज्र (बिजली के अस्त्र) चलाया, तो वह वज्र टूट गया। वृतासुर को मारने के लिए इंद्र को एक और भी अधिक शक्तिशाली और मजबूत वज्र की आवश्यकता थी।
तभी दधीचि की हड्डियों की बात सामने आई। दधीचि ने भगवान शिव से वरदान लिया था कि उनकी हड्डियां इतनी मजबूत हों कि वे इंद्र के वज्र से भी अधिक कठोर बन जाएं। इस कारण भगवान विश्वकर्मा को नया वज्र बनाने का आदेश मिला। उन्होंने कहा कि वे दधीचि की हड्डियां मिले बिना नया वज्र नहीं बना सकते।
इंद्र ने दधीचि से विनती की, तो दधीचि ने अपने प्राण त्याग कर अपनी हड्डियां देवताओं को दान कर दीं, ताकि नया वज्र बनाया जा सके।
जब यह घटना हुई, तब दधीचि का पुत्र पिप्पलाद अभी बालक था। जब उसे बाद में इस बात का पता चला, तो उसने इस बात को बहुत अन्याय और क्रूरता समझा। देवताओं ने अपने स्वार्थ के लिए उसके पिता के प्राण ले लिए थे। इस सोच से पिप्पलाद के हृदय में क्रोध का अग्नि सुलग उठा।
पिप्पलाद ने देवताओं से बदला लेने का संकल्प लिया और भगवान शिव की कठोर तपस्या शुरू की। शिवजी उनकी तपस्या से प्रसन्न हुए और वरदान मांगने को कहा।
पिप्पलाद ने कहा, “हे भोलेनाथ! आप अपना तीसरा नेत्र खोलकर उन देवताओं को भस्म कर दीजिए।”
भगवान शिव ने सावधानी से समझाया, “बेटा, मैं अभी अपने सरल और शांत स्वरूप में तुम्हारे सामने हूँ। मेरा रौद्ररूप देख पाना तुम्हारे लिए संभव नहीं है। मेरा तीसरा नेत्र खुलते ही सारा संसार विनष्ट हो जाएगा। तुम एक बार और सोच लो।”
लेकिन पिप्पलाद ने दृढ़ता से कहा, “मुझे इस संसार से कोई मोह नहीं है। आप बस अपना नेत्र खोल दीजिए और देवताओं को भस्म कर दीजिए, भले ही साथ में सारा संसार जल जाए।”
शिवजी ने उसे एक अंतिम अवसर दिया और कहा, “पहले मेरे रौद्ररूप का मन से दर्शन करो, फिर निर्णय लो।”
पिप्पलाद ने हृदय से भगवान शिव के रौद्ररूप का ध्यान किया। जैसे ही उसने रौद्ररूप देखा, उसे ऐसा लगा जैसे उसका शरीर जल रहा हो। वह कांप उठा और जोर से चीखा।
उसकी पुकार सुनकर शिवजी ने अपना रौद्ररूप हटा लिया और सामान्य रूप में प्रकट हुए। तब पिप्पलाद ने पूछा, “प्रभु, मैंने तो आपसे देवताओं को भस्म करने की प्रार्थना की थी, लेकिन आप तो मुझे ही भस्म करने लगे, ऐसा क्यों?”
भगवान शिव हँसते हुए बोले, “बेटा, विनाश किसी एक जगह से शुरू होता है, पर एक बार जब वह शुरू हो जाए तो उसे रोक पाना असंभव होता है। विनाश बढ़ता जाता है और अंततः वह अपने आरंभकर्ता को भी अपनी चपेट में ले लेता है।”
उन्होंने आगे कहा, “तुम्हारे हाथ इंद्र के समान हैं, तुम्हारे नेत्र सूर्य के समान हैं, और तुम्हारा मन चंद्रमा के समान है। तुम्हारे सारे अंग किसी न किसी देवता के रूप हैं। यदि तुम उन्हें नष्ट कर दोगे तो तुम स्वयं कैसे बचोगे?”
“तुम्हारे पिता ने परोपकार और धर्म की भावना से अपना शरीर त्याग दिया, पर तुम उनके पुत्र होकर दूसरों का नाश करना चाहते हो?”
पिप्पलाद को यह बात गहराई से समझ में आ गई। वह तुरंत शिवजी के चरणों में गिर पड़ा और अपने क्रोध का त्याग कर दिया।
शिक्षा:
यह कथा हमें सिखाती है कि क्रोध अग्नि के समान है। क्रोध भले ही आपको शक्तिशाली बनाए, लेकिन इसकी आंच से खुद भी जलना पड़ता है। अगर आप दूसरों को जला देते हैं तो यह ध्यान रखना चाहिए कि इस आग की गर्मी आपके अपने शरीर को भी हानि पहुंचाती है।
इसलिए, क्रोध पर संयम रखना और शांति बनाए रखना ही बुद्धिमानी है।